पत्र एवं पत्रकारिता >> अब वे वहाँ नहीं रहते अब वे वहाँ नहीं रहतेराजेन्द्र यादव
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चार शिखर लेखकों के बीच के पत्र-व्यवहार
Ab Ve Vahan Nahin Rahte a hindi book by Rajendra Yadav -अब वे वहाँ नहीं रहत - अब वे वहाँ नहीं रहते यहाँ सबसे पहले स्पष्ट कर दूँ कि मेरा कोई ऐसा समय नहीं है जो सिर्फ़ मेरा हो और उसे सिलसिलेवार समझा जा सके। होता तो आसानी यह होता कि मैं अपनी जीवनी की मोटी रूपरेखा प्रस्तुत कर देता-या संघर्ष कथा-बयान करते हुए अपने भीतर के ‘हीरो’ को पहचानने की कोशिश करता। जैसे ही मैं ‘मेरा समय’ कहता हूँ तो सीधे वे क्षण कौंधने लगते हैं जिन्होंने मुझे बनाने में निर्याणक भूमिका निभाई...मगर ऐसा कोई एक समय नहीं रहा-वह या तो कहीं टुकड़ों-टुकड़ों में है या एक दृश्य-अदृश्य निरंतरता में। उसके भी न जाने कितने स्वर और फ़ेज़ रहे हैं, कभी वह फैलाव में है तो कभी जीवन की दिशा तय कर देनेवाली परिघटना में...मैं अपने आपसे पूछता हूँ वह कौन-सा क्षण रहा है जो निजी रूप से सिर्फ़ मेरा है ? मैं, परिवार और समाज के द्वारा दिया गया समग्र और अखंडित प्रभाव ? इस सबको पकड़ने के लिए तो सैकड़ों पन्ने चाहिए...क्या कोई ऐसी एक थीम या सूत्र हो सकता है जो सारे जीवन को एक सविचारित परिभाषा में बाँध सके ? तब क्या मैं ऐसी ‘कथा’ हूँ जिसकी स्क्रिप्ट को किसी ने पहले से सोच कर लिख दिया है, और मुझे सिर्फ़ उसका निर्वाह करना है ? बात काफ़ी प्रारब्धवादी दिखाई दे रही है और किसी ‘और’ के लिखे नाटक का अभिनेताभर रहकर खुद अपना जीवन जीने की बात करना, अपने अहम् को ठेस पहुँचाता है। अक्सर ही मैं इस दी हुई स्क्रिप्ट से बाहर भी गया हूँ क्योंकि मेरा विवेक चुनाव और संकल्प निरंतर उकसाते रहे हैं कि मैं अपने चुनाव की इस स्वतंत्रता को पहचानूँ ही नहीं, साधिकार पेश भी करूँ।
मेरा समय खंड-खंडों और अनेक स्तरों में बँटा है, उसका सिर्फ़ कोई एक हिस्सा पकड़ा जा सकता है, या फिर शेखर की तरह एक ‘दीप्ति’ में उसकी समग्र झलक को देखा जा सकता है...
यहाँ अगर मैं पिछली सदी के 1955 से लेकर 1965 के दस सालों के कालखंड को मोटे रूप में लूँ तो शायद अपने जीवन की सबसे निर्णायक अवधि को पकड़ने की कोशिश कर सकता हूँ। शायद यह ‘नई कहानी’ आन्दोलन के बनने और स्थापित होने का ऐसा समय भी है जिसके एक नायक होने का अपराधी मुझे भी घोषित किया जाता है। निश्चिन्त रहिए, मैं यहाँ आत्मप्रशस्तियाँ गाने नहीं जा रहा, हालाँकि सचाई और गुंजाइश दोनों काफ़ी हैं और मैं आसानी से इस आन्दोलन को प्रारम्भ करने का श्रेय ले सकता हूँ; क्योंकि इस दृश्य में मोहन राकेश का आगमन तब होता है जब मेरे दो कहानी-संग्रह आ चुके होते हैं और मैं ‘खेल-खिलौने’ जैसी कहानी के लेखक के रूप में स्थापित हो चुका होता हूँ। कमलेश्वर का अवतरण सबसे बाद में है।
हम चारों एक ही समय, सोच और उम्र में रहते थे। बाद में तो तीनों के शहर भी एक हो गए। सबके मन में एक ही सपना था और वही हमारा पोस्टल एड्रैस था। दोस्त और दुश्मन भी तय थे। ज़ाहिर है समय हमारे विपरीत था और उसके थपेड़ों में बाहर और अपने आप से जूझ भी रहे थे और बदल भी रहे थे। शायद सपने का जादू भी धुंधला पड़ रहा था। ये पत्र उसी प्रक्रिया को समझने की दृष्टि देते हैं।
ऊपरी बातें हम सब जानते हैं, आइए, इस ‘नाटक’ के नेपथ्य में चलकर कुछ अन्तरंग देखा जाए। इसके लिए मैंने उन निजी पत्रों को चुना है जो हम तीनों के बीच संवाद सेतु बनाए हुए थे। शायद उस अन्तर्कथा को सबसे प्रामाणिक रूप में यह आपसी पत्र-व्यवहार ही सामने रख सकता है।
बात सन् 60 के आसपास की है। बच्चन और सुमित्रानन्दन पन्त के पत्रों का एक संकलन प्रकाशित हुआ। फिर सुना कि पन्तजी ने बच्चन पर उन पत्रों को लेकर मुकदमा कर दिया जिसका फैसला आया कि पत्रों पर इसी व्यक्ति का अधिकार है जिसे वे सम्बोधित किए गए हों। यह विवाद शायद नेहरूजी के पत्रों को लेकर भी उठ चुका है। मैं भी मानकर चल रहा हूँ कि जो पत्र यहाँ दिए जा रहे हैं उन पर मेरा अधिकार है : पत्र तीन व्यक्तियों के हैं : मोहन राकेश, नामवर और कमलेश्वर।
ज़ाहिर है, नई कहानी की जो अवधारणा बनी उसके निर्माण में कहीं हम चारों ही थे-बाद में इसमें निर्मल वर्मा, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी उषा प्रियंवदा, शैलेश मटियानी, मार्कण्डेय और शिवप्रसाद सिंह के नाम भी जोड़े जाने लगे। मगर मूल न्यूक्लियस (नाभिकीय केन्द्र) हम चारों का ही था।
मेरे पास सबसे अधिक पत्र मोहन राकेश के हैं। छोटे-बड़े मिलाकर एक सौ बीस। यह वह समय था जब मन की बातें पत्रों में की जाती थीं-कभी-कभी तो एक ही शहर या एक ही घर में। आज तो देखते-देखते हम उस युग में आ गए हैं, जहाँ भौगोलिक दूरियाँ समाप्त हो गई हैं। एस.टी.डी. ने हमें सारे देश से जोड़ दिया है। अब तो टेलीफ़ोन से ही ज़रूरी गैर ज़रूरी बातें हो जाती हैं। एस.एम.एस. तो आप कभी भी कर सकते हैं-चुपचाप और दूसरों के कानों की पकड़ के बाहर। पहले फ़ोन भी हर जगह नहीं होते थे। जिस दफ्तर या घर में फ़ोन होता वहाँ योजना बनाकर जाया करते। बात करने के समय का भी शायद कोई हिसाब नहीं था। लोकल कॉल सिर्फ़ एक होता था, मगर उसका भी हिसाब रखा जाता था। मुझे याद है डलहौज़ी (कलकत्ता) में तीन मंज़िल पर हमारे साझे मित्र प्रशान्त रक्षित का केबिन जैसा दफ्तर था और वहीं हेमलता का फोन आता था। समय दिया हुआ था-चालीस मिनट से लेकर घंटेभर बातें चलती थीं-कभी लोकल तो कभी ट्रंक पर। जाहिर है आस-पास वाले झुँझलाते। ख़ुद ज़रूरत पड़ने पर रक्षित पास वाले दफ्तर में जाकर फ़ोन करता। हर फ़ोन के पास ही पैसे जमा करने का डिब्बा लगा होता। न जाने कितनी प्रेम कहानियाँ इन फ़ोनों पर रोज़ बनती-बिगड़तीं सौदे होते और टूट जाते। ऐसे ही रौंग कॉल पर मेरी भी एक दोस्ती हो गई थी। आठ दस बार बातें करने के बाद मैंने तय कर लिया कि इसे अपने कमरे तक लाना है, और वह हुआ भी। फिर तो न जाने कितने रेस्त्राँ पार्क हमारी निकटता के गवाह बने। इस कहानी को भी कभी लिखना है।
बहरहाल, वह युग समाप्त हो गया। फ़ोन भी कामकाजी रह गए। मोबाइल फ़ोनों ने तो एक-एक व्यक्ति को आपस में जोड़ा ही नहीं, सारी प्राइवेसी निजी स्पेस समाप्त कर दी। लगता है, हम सदियों से बातें करने को तरस या तड़प रहे थे। कितनी भीतरी ज़रूरत थी आपस में जुड़ने की; संवाद में बने रहने की ? सड़क या सवारी पर हर तीसरा व्यक्ति कान से मोबाइल लगाए हाथ लहरा-लहराकर इस तरह अपने में डूबा दिखाई देता है जैसे पक्के गाने का आनंद ले रहा हो। विश्व को एक गाँव में बदलने की निर्णायक प्रकिया इन मोबाइल फ़ोनों ने ही शुरू की है, जहाँ खेत या खलिहान में एक आवाज़ देकर दूसरे के बुलाया जा सके।
लेकिन हम इसे कैसे भूलें कि आपसी पत्रों ने साहित्य को गहनतम व्यक्तिगत और अन्तरंग आयाम प्रदान किए हैं। वरना सारा खेल दिमाग़ी होकर रह जाता। पत्र पढ़ते हुए लिखने और पाने वाले की कल्पना में वाक़ायदा तस्वीरें खड़ी होती हैं। कैसी रही होगी वह यक्ष प्रिया जिसे कालिदास ने मेघ के माध्यम से अपने संदेश भेजे ? कौन थी जोसेफ्रीन जिसे बड़ी से बड़ी ख़तरनाक स्थितियों में नैपोलियन ने पत्र लिखे कीट्स की प्रेमिका या उस जैसी प्रेरणाएँ....लम्बी सूची है उन पत्रावलियों की जिनका आज ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्त्व है। कितना अधूरा रहता सारा साहित्य अगर दूसरे की यह पत्र उपस्थिति न होती ? ग़ालिब के यहाँ तो पत्रों से ज़्यादा पत्र वाहक की प्रशस्तियाँ हैं। गोपियों को कृष्ण का संदेश देने वाले उद्धृ़व की तरह लगता है समय की आत्मा तो इन्हीं पत्रों में बची हुई हैं।
ख़ैर बात ‘नई कहानीकारों’ के पत्रों की हो रही थी। मोहन राकेश की लिखाई लगभग वैसी ही है जिसे उर्दू में शिकस्ता कहते हैं। वह झटके में लिखता था, मगर न कहीं काट छाँट है, न भाषा या वर्तनी की गलती। हाँ, कुछ शब्दों के सही रूप पकड़ने में मुझे, कविता और बलवंत तीनों को तारे नज़र आने लगे। बड़ी मुश्किल से सन्दर्भों (कांटैक्स्टों) के सहारे असल शब्द पकड़ना पड़ता था। फिर भी दो चार जगह छोड़ना पड़ा। 45-50 सालों में इनलैंड या लैटर-पैड ही बदरंग नहीं हो गए-कागज भी पापड़ जैसे ‘ब्रिटल’ हो गए हैं-छुओ तो टूट जाते हैं। ऊपर चलते पंखों से और मुसीबत-एक संभालो तो दूसरा छटपटाता। कमलेश्वर और नामवर बहुत सुधी और सुन्दर लिखाई में पत्र लिखते हैं। वहाँ कोई दिक्कत नहीं हुई। शायद लिखाई ही वह कारण रही होगी कि राकेश बाद में टाइपराइटर पर लिखने लगा। मैं मजाक में कहता हूँ कि जिन्हें प्रेमपत्र लिखने की लत होती है उनकी लिखाई सुन्दर और स्पष्ट होती है।
दूसरे को प्रभावित करना होता है। हो सकता है दूसरा पक्ष उतना पढ़ा-लिखा न हो। कमलेश्वर अपनी खूबसूरत लिखाई में लगभग पेशेवर प्रेमी की तरह पत्र लिखता है। नामवर ने प्राकृति और निजी स्मृति को लेकर कभी रोमांटिक कविताएँ जरूर लिखी हैं, मगर किसी को सम्बोधित करके प्रेमपत्र लिखे हों, मेरी जानकारी में नहीं है। उनकी छवि ‘सत्यार्थप्रकाश’ पढ़नेवाले ‘आर्य पुत्र’ या गुरुकुल के ‘बटुक’ की है। जिसकी सांस-सांस से ब्रह्मचर्य का दर्प ऊर्जास्वित है। विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे दुष्टों का तो स-प्रमाण कहना है कि कहीं दो एक जगह उनके भटकाव भी सुरक्षित हैं, जिन्हें वे बड़े खिसियाए भाव से निःशब्द नकार स्वीकार करते हैं-जैसे दादी नानी बनी स्त्री अपने रोमांटिक क़िस्से सुनकर करती हैं। कवि अजित कुमार के बारे में मेरी ही फैलाई अफ़वाह है कि वे ऐसे सावधान और चौकन्ने प्रेमी हैं कि जगह-जगह उनके पुत्र भले ही मिल जाएँ, पत्र कभी नहीं मिलेगा...वे अपने किए का कोई सुराग़ नहीं छोड़ते।
लगभग दस-बारह सालों में फैले राकेश के पत्र बेहद आत्मीय ऊष्मा से भरे हैं। हर दूसरे पत्र में वह मुझे अपने पास बुलाता है, अपनी भटकनों और बेचैनियों को बाँटना चाहता है। चुहल और छेड़छाड़ भी कम नहीं है, मगर वह हर कहीं शालीन और नाटकीय है। अजीब बेचैनी उसे हर समय ऐड़ लगाती रहती है। अंग्रेजी में कहूँ तो ही वॉज रीयली ए रैस्टलैस सोल। जहाँ है वहाँ से भाग छूटने की तड़प; स्थान, नौकरी प्यार या शादी। बँधना कहीं नहीं है। कभी शिमला के बिशप कॉपन कान्वेन्ट स्कूल में पढ़ा रहे हैं तो कभी डीएवी कॉलेज जालंधर में। हिन्दी उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी पर उसका अद्भुत अधिकार है और बेहद सहजता से वह इनका इस्तेमाल करता है। ज्यां क्रिस्तोफ़ वार एंड पीस अन्ना कैरेनिना जैसेमोटे पोथे उसने कैसे पढ़े होंगे, यह सोचकर मुझे हमेशा आश्चर्य होता था, क्योंकि घंटे भर एक जगह बैठना उसके लिए सज़ा भुगतने से कम नहीं था और कुछ नहीं तो उठकर टहलने लगता था। एक बार मैं तीन चार सौ पन्नों का संक्षिप्त अन्ना कैरेनिना पढ़ रहा था तो उसने उसे छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिया, ‘‘पढ़ना है तो मूल और असंक्षिप्त पढ़ो, ये किताबें सिर्फ़ कहानियाँ जानने के लिए नहीं।’’
मुझे याद और राकेश झटके से प्रोग्राम तय करता था। शाम को हम लोग काफ़ी-हाउस में बैठे अच्छे-ख़ासे गप्पे लड़ा रहे हैं, आगे के प्रोग्राम तय हो रहे हैं। बिना कोई सूचना दिए। अर्थशास्त्र हम लोगों का हमेशा ही खराब रहा, और जगह-जगह पैसों का रोना भी पत्रों में भरा पड़ा है, मगर इस कारण शायद ही कोई काम रुका हो। ये कर्जे कैसे चुकाए जाएँगे, यह चिन्ता हर समय सवार रहती थी। राकेश शाह-ख़र्च था। वह कहता भी था कि कोई ज़रूरी है कि हिन्दी लेखक यतीम और भिखारी ही दिखाई दे ? वह चाहने पर बेहद टुच्चा भी हो सकता था। उसे देखकर आदिम बंजारे की याद आती थी जिसे ठीक-ठाक कपड़े पहनने का शौक हो। उसके खाने, पहनने और व्यवहार में पंजाबी खुलापन और लापरवाही थी। खूबसूरत और गदबदा आदमी था।
मैं शुरू से ही मानता हूँ कि व्यावहारिक मामलों में वह मुझसे ज़्यादा समझदार था। सारी भावुकता के बावजूद कुछ स्थितियों में वह मेरे मुकाबले ज़्यादा मैच्चोर था, फिर वह चाहे प्रकाशकों से बातें करना हो, एडवान्स की व्यवस्था हो या मन्नू और मेरे बीच की सलवटें हों। स्त्रियों के सम्बन्ध में उसकी समझ बहुत साफ़ थी; वह उनके बारे में किताब की तरह पढ़कर सुना सकता था, मगर वह हर बार खुद घपले में फँस जाता था। शुरू में वह बड़ा भाई बनकर मेरी चिन्ता करता था।
जैसा मैंने अनेक जगह कहा हैः शीलाजी से मेरा परिचय राकेश से मिलने के साल भर पहले हुआ था। वे मेरी चचेरी बहन प्रेम की प्राध्यापिका थीं और दयालबाग में पढ़ाती और वहीं रहती थीं। तब तक मैंने मदन मोहन गुगलानी का नाम भी नहीं सुना था। शायद अतरचन्द कपूर नाम के पंजाबी प्रकाशक के लिए किसी पाठ्यक्रम का कहानी संग्रह तैयार कर रहा था और उसमें शामिल करने के लिए मेरी ‘खेल खिलौने’ की अमुमति माँगने के साथ पचास रुपए का चैक आया था। आगरे में साक्षात् मिलने से पहले यह मेरा उसका पहला संवाद था। फिर तो जब भी आगरा आता, हम लोग अक्सर ही साथ रहते-कभी घनश्याम अस्थाना, प्रकाश दीक्षित अमृतलाल नागर डॉ. रामविलास शर्मा के साथ तो कभी शास्त्रीजी के रेस्त्राँ में...या कभी मेरे घर। उसका ‘घर’ दयालबाग था, मगर वहाँ ले जाने से बचता था।
वहाँ कुछ भी न बोलनेवाली बेहद वत्सल अम्मा थीं और शीलाजी थीं। सम्बन्धों में तनाव था। एक घटना तब की है जब नवनीत आ चुका था। हम सब लोगों और शीलाजी की इच्छा थी कि राकेश को भी आगरा ही रहना चाहिए, बच्चा छोटा है, घर पर सारी महिलाएँ हैं। हमने सैंट-जॉन्स कॉलेज के डॉ. हरिहर नाथ टंडन से कहकर हिन्दी विभाग में राकेश की सारी व्यवस्था कर दी। डिग्रियाँ और अनुभव ऐसे थे कि उसे कहीं कोई दिक्कत ही नहीं पड़ी। इंटरव्यू सिर्फ़ औपचारिकता थी-मगर जो होना था वही हुआ, राकेश जी आए ही नहीं। इस पर शीला जी काफ़ी दुखी थीं ! रोते-रोते उन्होंने उसकी ग़ैर-जिम्मेदारी भटकने की वृत्ति की काफ़ी शिकायतें की तो मैंने भी उसे भला-बुरा कहते हुए कहीं कह दिया :‘‘वह राहुल यशोधरा को छोड़कर खुद भगवान बुद्ध बने बिना मानेगा नहीं।’’ उस समय वह कन्याकुमारी की यात्रा पर गया हुआ था। बाद में यह भी शीलाजी और राकेश के बीच मतभेद का एक मुद्दा बना, ‘‘अपने मित्र से कह दीजिए कि दूसरों के निजी सम्बन्धों में बहुत दिलचस्पी ने ले।’’ राकेश ने मुझे पत्र में लगभग फटकारा। तब मेरे पास भी इतनी समझ कहाँ थी कि पति पत्नी के बीच कभी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए- बाक़ायदा आपके सामने लात-घूँसों से पिटती पत्नी के पति को अगर आप हमदर्दी में दो चार हाथ लगा दें तो फुफकार कर वही आपके ऊपर झपट पड़ेगी-‘‘तू कौन होता है उसे मारने वाला ? मेरा आदमी है, मुझे मार रहा है, तुझे क्या ?’’
चूँकि राकेश को लिखे मेरे पत्र इस समय कहाँ हैं, मुझे मालूम नहीं, इसलिए पत्रों से ही आज अनुमान लगा सकता हूँ कि मैंने क्या लिखा होगा। (अपने कुछ पत्र यहाँ दिये हैं।) शुरू की निश्छल मित्रता में क्रमशः एक पैटर्न उभरते यहाँ साफ़ देखा जा सकता है। पहले हम लोग एक दूसरे के लेखन के बारे में या निजी समस्याओं को लेकर जानकारियाँ लेते-देते थे, मगर फिर नई कहानी एक ऐसे आन्दोलन के रूप में उभरने लगती है जिसका श्रेय हम तीनों एक साथ और अलग-अलग लेने के द्वंद्व के शिकार हो जाते हैं। तब कुछ सावधानियाँ रणनीतियाँ भी तय होने लगती है। रचनात्मक लेखन से अलग जो भी वैचारिक लिखा जाए उसकी जानकारी हम तीनों को होनी चाहिए-यह जानकारी धीरे-धीरे एक कोड में बदलने लगती है, यानी करणीय और अकरणीय की सीमाएँ तय होने लगती हैं। युग प्रगतिशील का है।
इसलिए दुश्मन परिमलीय लोग हैं। वे भाषा, कला, सोच और लेखन में व्यक्ति स्वातंत्र्य की उस परिभाषा से संचालित हैं जो शीतयुद्ध के दौरान ‘कल्चरल फ्रीडम’ या अमेरिकन खुफ़िया एजेंसी सीआईए की प्रेरणा से ‘एनकाउंटर’ जैसी पत्रिकाओं में परोसी जा रही है-अज्ञेय और धर्मवीर भारती केन्द्र में हैं। उधर जैनेन्द्र जी सी आई.एक के ही दूसरे विंग ‘मॉरल रि आर्मामेंट’ को सँभाले हैं। सी.आई.ए. किस तरह विशेष वैचारिक और बौद्धिक बहसें प्रायोजित कर रहा था, इसका खुलासा बाद में उस समय होता है जब ‘एनकाउंटर’ पत्रिका के आदि संपादकस्टीफेन स्पैंडर अपना त्यागपत्र देते हुए इस पत्रिका को शीतयुद्ध के एक प्रच्छन्न मोर्चे का नाम देते हैं। भारत में ही क्वैस्ट, थॉट जैसे न जाने ऐसी कितनी पत्र-पत्रिकाएँ थीं जिन्हें विभिन्न स्रोतों से साधन पहुँचाए जाते थे। यह रहस्योद्घाटन निश्चय ही परिमलियनों के लिए जबरदस्त धक्का था। समाज विरोधी व्यक्ति स्वातंत्र्य की लुभावनी अवधारणा अचानक संदिग्ध हो उठी। वह कैसी ‘स्वतंत्रता’ थी जिसके सूत्र अमेरिका के बिके हुए बुद्धिजीवी कर रहे थे ? उनमें अधिकांश वे लोहियावादी थे जो मार्क्सवाद के विरोध जिहाद में सन् 90 के बाद सीधे या प्रच्छन्न रूप से बी.जे.पी. की खोह में जा घुसे। आज भी जॉर्ज फ़र्नाडिस जैसे तो ऐसी बेहयायी, बेशर्मी और घिनौने ढंग से बी.जे.पी. के साथ चिपके हुए हैं कि न उन्हें पादरी स्टैन्स को परिवार के साथ जिन्दा जलाना विचलित करता है, न गुजरात का नरसंहार....रक्षा मंत्री रहने के दौरान उन्होंने जो देशद्रोह और विश्वासघात किए, उनसे आज बचाएँगे तो बी.जे.पी. वाले ही, इसलिए उनके जूते चाटने के सिवा मुक्ति कहाँ है ?
जब मैं कलकत्ते से दिल्ली आया तो एक दुनिया समानांतर की भूमिका (टाइप्ड कॉपी) साथ थी। उसे मैंने दिल्ली में अन्तिम रूप दिया। राकेश और कमलेश्वर एक ही मकान में, करोलबागह के डब्ल्यू.ई.ए. एरिया में ऊपर नीचे रहते थे। मैंने कहानियों सहित सारी पुस्तक तैयार करके भारतीय ज्ञानपीठ को देने से पहले शक्तिनगर में उसका एक पाठ रखा। राकेश, कमलेस्वर और मन्नू तीनों ही थे। जब भूमिका पढ़कर समाप्त हुई तो तीनों ही चुप थे। कहानियों के नामों को लेकर जिस तरह चटाई बुनी गई थी, उसे तीनों ने ही अनावश्यक चमत्कार कहकर निकालने का आग्रह किया। तीनों ही सहमत थे कि ‘नई कहानी’ आन्दोलन की बेहद महत्त्वपूर्ण पीठिका इस भूमिका द्वारा तैयार कर दी गई है। राकेश और कमलेश्वर दोनों चाहते थे कि इसके प्रकाशन को दो एक साल रोक दिया जाए-तब तक वे भी अपनी एक एक किताब तैयार कर लेंगे। एक दिन दोनों बेहद गम्भीर चेहरे बनाए प्रकट हुए। बहुत ‘इम्पोर्टेंट बात डिस्कस’ करनी थी। टाइम्स ऑफ इंडिया में चौरासी लाख रुपयों की रद्दी बेच खाने का मामला सामने आया था-वस्तुतः वह कोटे का काग़ज बेचने का केस था। चूँकि इन दिनों यह एक ऐसा आर्थिक घपला था जिसका असर राष्ट्रव्यापी होने जा रहा था, इसलिए हमें टाइम्स ऑफ इंडिया की ही एक इकाई भारतीय ज्ञानपीठ के साथ किसी तरह का सहयोग नहीं करना चाहिए। यानी मुझे एक दुनिया समानांतर की पांडुलिपि वहाँ से ले लेनी चाहिए-दोनों का ‘सैंद्धांतिक आग्रह’ यही था। दो तीन घंटे बहस के बाद जब मैं इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े, ‘‘यार हम तो चाहते थे कि तेरी किताब पहले न आए....’’
‘एक दुनिया...’’ में तो राकेश अपनी कहानी नहीं रोक पाया, मगर जब मैंने राजपाल एंड संस से ‘नए कहानीकार’ सीरीज़ की बात तय की तो वह बम्बई के एक काल्पनिक प्रकाशन का बहाना बनाकर उसका संग्रह पहला हो, बल्कि उसकी भूमिका भी तब जाए जब राकेश जी ‘अनापत्ति’ (नो आब्जैक्शन) की चिट दे दें। वस्तुतः वह भूमिका में नई कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण और सर्वश्रेष्ठ लेखक होने की स्वीकृति चाहता था। मैं भी अड़ गया कि भूमिका वैसी ही जाएगी जैसी मैंने लिखी है। अन्य अनेक कारणों के साथ हमारे अलग होने में इस भूमिका का भी निर्णायक हाथ था। ‘नई कहानी’ पत्रिका में भी उसका आग्रह रहता था कि उसका नाम सबसे पहले हो क्योंकि यह उसका नहीं, रचनाशीलता का सम्मान था। ‘नई कहानी’ आन्दोलन तो स्थापित हो चुका था। अब सवाल इस बात का था कि इसका प्रथम पुरुष कौन हो ? सैद्धान्तिक रूप से कमलेश्वर सबसे कमज़ोर था, मगर आन्दोलन की भाषा और बड़बोली मोर्चेबाज़ी में उसे महारत हासिल थी। वे दोनों साथ भी रहते थे, इसलिए सिद्धान्त राकेश देता था उसे व्यावहारिक बनाकर पेश कमलेश्वर करता था। राकेश ने एल.एल-बी. भी किया था और कुछ भी करने से पहले उसका सिद्धान्त गढ़ने का उसे ख़ासा अभ्यास था। निश्चय ही उसमें सेनापति होने के सारे गुण थे। अज्ञेय और धर्मवीर भारती उसके लिए चुनौतियाँ थे।
इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि राकेश के व्यवहार में एक अजीब ढंग की आत्मीयता और ऊष्मा थी और वह बेहद सहजता से आपको यह विश्वास दिला देता था कि आप ही उसके सबसे घनिष्ठ निर्भरणीय और अन्तरंग दोस्त हैं, मैं कम से कम चार-पाँच लोगों को जानता हूँ जो उसके ‘एकमात्र सबसे अच्छे दोस्त होने का विश्वास पाले हुए थे : कमलेश्वर, जवाहर चौधरी ओमप्रकाश और भारती। बहरहाल, राकेश के पत्रों से गुजरना एक खूबसूरत सम्बन्ध का निरंतर राजनैतिक होते चले जाना है। शायद स्त्रियों के सम्बन्ध में भी राकेश एक साथ कई धरातलों पर बना रह सकता था। मैं झूठ बोलूँगा अगर कहूँ कि लगभग दस साल राकेश की दोस्ती भरे पत्र-व्यवहार ने मुझे आश्वस्ति, आत्मविश्वास और चीज़ों को समझने की अन्तर्दृष्टि नहीं दी...बाद में मेरी उससे बोलचाल भी बन्द हो गई थी। हाँ मन्नू से बनी रही। मन्नू ने इसे विस्तार से अलग लिखा है।
इस तुलना में कमलेश्वर के पत्र ज़्यादा व्यावहारिक और कामकाजी हैं। कमलेश्वर से मेरा परिचय अश्कजी के संकेत से शुरू हुआ, जहाँ वह और मार्कण्डेय सहायक सम्पादक थे। मैंने ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ कहानी भेजी थी। अश्कजी ने तो उसकी तारीफ़ की ही, शायद काश्मीर से कमलेश्वर का भी एक पत्र उसकी प्रशंसा में आया। और फिर जो सिलसिला शुरू हुआ वह आदरणीय भाई से होता हुआ तेरा बाप कमलेश्वर तक आ गया। मुख्यतः देशी सेठ को लेकर ‘संकेत’ से कमलेश्वर के सम्बन्ध बिगड़े कुछ समय के लिए मार्कण्डेय और उसके बीच भी दूरी आ गई थी, बीच में दुष्यंत भी था। देशी को मैंने दुष्यंत के घर ही देखा था। देशी उन शरणार्थियों में थी जो विभाजन के बाद इधर आ गए थे। देशी के साथ सिर्फ़ उसकी माँ थी। देशी खूबसूरत थी और अश्कजी ने उसे ‘नीलाभ’ में काम देकर वहीं रहने की व्यवस्था कर दी थी।
मामला इतना बिगड़ा कि देशी को नीलाभ छोड़कर इन मित्रों की मदद से रहने की अलग व्यवस्था करनी पड़ी। इलाहाबाद जैसी जगह में देशी का खुला व्यवहार नए लेखकों के बीच ख़ासा रोमानी हलचलों भरा था। बाद में वह राजकमल में आई। देशी को किताब महल और राजकमल में जमाने की कोशिशें भी हुई-एकाध जगह तो उसी के कारण कमलेश्वर के साथ नागार्जुन भी धरने पर बैठे-फिर कमलेश्वर ने ‘मसिजीवी’ प्रकाशन शुरू कर दिया। ‘कुलटा’ और ‘मैं हार गई’ के पहले संस्करण वहीं से आए। कौशल्या अश्क की तरह देशी ‘मसिजीवी’ के लिए जगह-जगह झोला लेकर घूमती थीं। राजस्थान में दो चार जगह मन्नू भी साथ गई। फिर कुछ समय बाद कमलेश्वर दिल्ली आ गया। मुझे याद है : किस तरह होली के दिन पोनप्पा रोड स्थिति मसिजीवी प्रकाशन में बन्द होकर मैं ‘कुलटा’ टाइप कर रहा था और चारा पानी खाने के लिए देशी मेरी देख भाल कर रही थी।
बगल के क्वार्टर में रेणु भी थे, मगर कमलेश्वर केसम्बन्ध इसलिए स्थगित थे कि वे राजकमल के मेहमान थे और ‘परती-परिकथा’ का अंतिम रूप तैयार कर रहे थे। इधर कमलेश्वर की मुहिम दूसरा राजकमल खड़ा कर देने की थी। बाद में ‘मसिजीवी’ से हमारे सम्बन्ध समाप्त होने में काफ़ी कुछ कड़वाहट भी आ गई थी। कमलेश्वर ने इस आश्वासन के साथ मन्नू के कहानी संग्रहों में पैसे लगवाए थे कि वे शीघ्र ही लौटा दिए जाएँगे। मगर जब ‘मसिजीवी’ को समाप्त किया तो किताबों के बंडल हमारे यहाँ आ गए, साथ ही हिसाब की पर्ची भी कि इतने रुपए प्राप्त हुए और बदले में इतने मूल्य की किताबें दी गईं। किताब बराबर। अब यह हमारा काम था कि किताबें बेचें और अपने पैसे निकालें...
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